संसार में सुखी कौन है
एक बार एक राजा विदेश को गया। जब उसने वापस देश लौटने का विचार बनाया तो घर में अपनी चारों रानियों को अलग-अलग पत्र लिखकर पूछा कि विदेश से उनकी आवश्यकता की कौन सी वस्तु उनके लिए लाई जाय? उनमें से तीन रानियों ने अपने पसंद की वस्तु लिखकर वापस राजा के पास पत्र भिजवा दिये, किन्तु जो सबसे छोटी रानी थी, उसने सिर्फ 1 लिखकर पत्र वापस भिजवा दिया। राजा ने चारों चिट्ठियों को पढ़ा । किसी रानी ने वस्त्र लिखे थे, किसी ने आभूषण लिखे थे, किसी ने खाने पीने की वस्तु लिखी थीं। राजा विदेश से वापस आया और जिस रानी ने जो वस्तु लिखी थी, वह उसके पास पहुंचा दी। सबसे छोटी रानी ने 1 लिखकर पत्र भेजा था, राजा इसका आशय नहीं समझ पाया। वह छोटी रानी के महल में गया और पूछा -- प्रिये! आपने 1 लिखकर हमें विस्मय में डाल दिया। आप इसका आशय स्पष्ट करें । रानी ने कहा-- महाराज ! मुझे तो किसी सांसारिक वस्तु की आवश्यकता नहीं थी, मुझे तो एक आप ही चाहिए थे, वो मिल गये हैं । राजा रानी के अतिशय प्रेम को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ। छोटी रानी ने माया को नहीं चाहा, बल्कि मायापति को चाहा तो उसे राजा मिल गये ।
ऐसे ही जो संसार की माया चाहता है, वह सांसारिक पदार्थों में सुख को खोजता रहता है, किन्तु उसे मृग-मरीचिका की भाँति संसार में सुख नहीं मिलता है, क्योंकि सांसारिक पदार्थ नाशवान् हैं । संसार के भोगों से हमारी कभी तृप्ति नहीं हो सकती। भर्तृहरि जी कहते हैं---
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः
तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः।
कालो न यातो वयमेव याताः
तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः।।
अर्थात् 'हमने विषयों को कभी नहीं भोगा, बल्कि विषयों ने ही हमें भोग लिया। हमने तपस्या भी नहीं की, चिन्तन में ही समय को गँवा दिया। हमसे कभी काल भी व्यतीत न हुआ, बल्कि हम ही उल्टे व्यतीत हो गये। फिर भी हमारी तृष्णाओं का अन्त नहीं हुआ और देखते-देखते हम बूढ़े हो गये।'
तात्पर्य यह है कि मनुष्य जब तक नश्वर भोगों में सुख खोजेगा, तब तक उसको कभी स्वप्न में भी विश्राम नहीं मिलेगा। एक परमात्मा का आश्रय लेने से ही उसे शान्ति का सुगम मार्ग दिखलाई पड़ेगा।
संतप्रवर पूज्य रामचन्द्र केशव डोंगरे जी महाराज कहते थे---
लक्ष्मी अकेली आती है तो रुलाती है, किन्तु जब ठाकुर जी साथ आते हैं तभी वह हमें प्रसन्नता देती है ।
जैसे शून्य के पीछे एक नहीं हो तो कितने भी शून्य लगा दें, उनका महत्व नहीं है, ऐसे ही जीवन में जब तक परमात्मा का स्थान नहीं है, तब तक समस्त भोग पदार्थ हमें नाश की ओर ले जाने वाले ही होंगे।
दीन कहे धनवान सुखी,
धनवान कहे सुखी राजा हमारा।
राजा कहे महाराजा सुखी,
महाराजा कहे सुखी इन्द्र प्यारा।।
इन्द्र कहे ब्रह्मा हैं सुखी
और ब्रह्मा कहे सुखी पालनहारा।
विष्णु कहें एक भक्त सुखी,
बाकी सब दुखिया है संसारा।।
ऐसे ही जो संसार की माया चाहता है, वह सांसारिक पदार्थों में सुख को खोजता रहता है, किन्तु उसे मृग-मरीचिका की भाँति संसार में सुख नहीं मिलता है, क्योंकि सांसारिक पदार्थ नाशवान् हैं । संसार के भोगों से हमारी कभी तृप्ति नहीं हो सकती। भर्तृहरि जी कहते हैं---
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः
तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः।
कालो न यातो वयमेव याताः
तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः।।
अर्थात् 'हमने विषयों को कभी नहीं भोगा, बल्कि विषयों ने ही हमें भोग लिया। हमने तपस्या भी नहीं की, चिन्तन में ही समय को गँवा दिया। हमसे कभी काल भी व्यतीत न हुआ, बल्कि हम ही उल्टे व्यतीत हो गये। फिर भी हमारी तृष्णाओं का अन्त नहीं हुआ और देखते-देखते हम बूढ़े हो गये।'
तात्पर्य यह है कि मनुष्य जब तक नश्वर भोगों में सुख खोजेगा, तब तक उसको कभी स्वप्न में भी विश्राम नहीं मिलेगा। एक परमात्मा का आश्रय लेने से ही उसे शान्ति का सुगम मार्ग दिखलाई पड़ेगा।
संतप्रवर पूज्य रामचन्द्र केशव डोंगरे जी महाराज कहते थे---
लक्ष्मी अकेली आती है तो रुलाती है, किन्तु जब ठाकुर जी साथ आते हैं तभी वह हमें प्रसन्नता देती है ।
जैसे शून्य के पीछे एक नहीं हो तो कितने भी शून्य लगा दें, उनका महत्व नहीं है, ऐसे ही जीवन में जब तक परमात्मा का स्थान नहीं है, तब तक समस्त भोग पदार्थ हमें नाश की ओर ले जाने वाले ही होंगे।
दीन कहे धनवान सुखी,
धनवान कहे सुखी राजा हमारा।
राजा कहे महाराजा सुखी,
महाराजा कहे सुखी इन्द्र प्यारा।।
इन्द्र कहे ब्रह्मा हैं सुखी
और ब्रह्मा कहे सुखी पालनहारा।
विष्णु कहें एक भक्त सुखी,
बाकी सब दुखिया है संसारा।।
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