भारतीय गणना पर विश्व का वैज्ञानिक समाज

भारतीय वेदों के अनुसार पृथ्वी पर सृजन की उत्पती 197 करोड वर्ष पूर्व हुई है,आश्चर्य है कि आज की आधुनिकतम तमाम वैज्ञानिक भी इसी नतीजे पर पहुचे कि लगभग 2 अरब वर्ष पूर्व से सृजन अस्तित्व में आया, दोनो गणनायें पूरी तरह एक दूसरे से मिल रहीं हैं, भारतीय गणना पर विश्व का वैज्ञानिक समाज अचम्भित है कि भारतीयों ने इतनी सटीक गणना कैसे की, ग्रहों की चाल कैसे जानी, सूर्यग्रहण-चंद्र ग्रहण को कैसे पहचाना...!

 ऋग्वेद के प्रथम अध्याय के 130 वें सूक्त में चंद्रमा को नक्षत्रेश कहा गया है,वेदों को पाश्चात्य विश्लेषक भी 10-15 हजार वर्ष पूर्व रचित मानते है। हमारे महाभारत में भी आया है कि वेदों का पुनःलेखन वेदव्यासजी ने किया है। इस प्रकार इतना तो स्पष्ट है कि विश्व को कालगणना का प्रथम कार्य व विचार भारत ने ही किया व दिया...।

 जिस सूर्य सिद्यांत पर अंग्रेजी सन चल रहा है, उस सबसे पहले पटना में जन्में आर्यभट्ट ने परिष्कृत किया, उन्होने घोषित किया था कि पृथ्विी सूर्य का चक्कर लगाती है। वर्षमान 365.8586805 दिन भी उन्होने ही तय किया व त्रिकोणमिति का अविष्कार किया था, इसी प्रकार उज्जैन में जन्में वराह मिहिर ने खगोल पिण्डों की गहन छानबीन की, भास्कराचार्य ने सबसे पहले गुरूत्वाकर्षण के सिद्यांत को स्थापित करते हुए बताया कि सारा बृम्हांण्ड एक दूसरे के गुरूबल अंतरो पर अबलंवित व गतिशील है।

भारतीय संस्कृति विलक्षण प्रतिभा के मनीषियों की एक ऐसी श्रृंखला है जिसने सत्य की खोज में घोर परिश्रम किया और समाज की व्यवस्था को व्यवस्थित किया। भारतीय अनुशंधानकर्ताओं के विश्व स्तरीय ज्ञान के रूप में कालगणना व खगोल सम्बंधी वैज्ञानिकता आज तक प्रमाणिकता से अपना सीना ताने खडी है।

 कई बार अंग्रेजी सन की संवत से तुलना की जाने लगती है वह गलत है, सन महज एक सुविधाजनक केलेंडर है जिससे दैनिक राजकार्यो को निर्धारित करने व मजदूरी आदी के भुगतान के लिये काम में लिया गया, इसे सूर्य पर आधारित वर्षगणना मानी जा सकती है, हिसाब - किताब की व्यवस्था की एक विधा मानी जा सकती है मगर इसे कालचक्र का गणित नहीं माना जा सकता। मगर यह खगोल पिण्डों की स्थिती, गती, प्रभाव सहित भारतीय व्रत-त्यौहार आदी में अंग्रेजी सन बहुत ही बौना साबित है न कॉफी व उसकी कोई उपयोगिता नहीं होती है।

 हजारो वर्षाे से व्रत, त्यौहार, विवाह, जन्म, पूजा-अर्चना, शुभाशुभ कार्य आदी में भारतीय संवत्सर ही अपनी विशेष भूमिका निभाता है। चाहे दीपावली हो, चाहे होली हो, चाहे कृष्ण जन्माष्टमी हो अथवा रामनवमी हो, संवतसर से ही इनकी गणना होती है। विवाह, जन्मपत्री बनाने, मुण्डन, भविष्यवाणी करने, उद्घाटन, शिलान्यास, शुभ महुर्त अथवा किसी भी प्रकार के शुभ कार्य आदी में महती भूमिका भारतीय कालगणना की है।

 सृष्टि की उत्पति, उसके विविध स्वरूपों की व्यवस्था और उनकी निरतरतम गतिविधियों और अन्त (प्रलय) के संदर्भ में जब अध्ययन प्रारम्भ होता है तो सबसे पहला प्रश्न यही उत्पन्न होता है कि खगोल क्या है, कब से है, कब तक रहेगा? हमारे पूर्वजों की इसी जिज्ञासा और सामाजिक व्यवस्थापन की आवश्यकताओं ने कालगणना को जन्म दिया ।

सनातन ऋषियों ने सबसे पहले यह महसूस किया कि पृथ्वी पर होने वाले दिन व रात का समय घटता-बढ़ता रहता है मगर दिन और रात का संयुक्त समय एक ही रहता है, चन्द्रमा का रात्रि दर्शन लगभग निश्चित क्रम में बढ़ता और घटता है एवं लगभग निश्चित अंतर से रात्री में पूर्ण प्रकाश (पूर्णिमा) और अप्रकाश (अमावश्या) आता है। यह भी सामने आया कि पूर्णिमा या अमावश्या भी एक निश्चित समय के पश्चात पुनः आते है जो माह से जाना गया। इतना ही नही जब अन्य क्षैत्रों पर ध्यान दिया गया तो पाया कि वर्षा, सर्दी, गर्मी के तीनों मौसम निश्चित अंतर से पुनः आते हैं। सभी 6 ऋतुओं का भी सुनिश्चित चक्र है और इसी चक्र से अन्ततः स्थापित हुआ वर्ष, क्योंकि यह महसूस किया गया कि बारह पूर्णिमाओं के बाद हम ठीक उसी स्थिति में होंगे हैं जिस स्थिति में इस समय हैं। इसी कारण 12 माह कि एक इकाई के रूप में वर्ष शब्द आया और इस वर्ष के शुभारम्भ को वर्ष प्रतिपदा कहा गया।

काल व्यस्थापन की आवश्यता व रोजमर्रा की भूमिका बढ़ती गई और इसी क्रम में अध्ययन भी बढ़ता गया और मनुष्य की आयु के कारण आया शताब्दि ! फिर अपनी निशानियों को याद रखने और वंश की श्रृंखला निश्चित करने या किसी विशेष घटना को याद रखने के क्रम मे नाम वाले संवत आये। इस तरह के संवतों में विक्रमी संवत नवीनतम है। जो विक्रमादित्य द्वारा विदेशियों पर विजय प्राप्त कर, उन्हे भारत से बाहर खदेड देने की स्मृति में है।

किन्तु इन सभी कृत्यों के चलते हुए भी काल की सही गणना, उसके वैज्ञानिक विश्लेषण, घटित होने वाले प्रभावों से लेकर मानव जीवन तक पर पडने वाले प्रभावों का गहन अध्ययन हुआ, जांचा परखा और खरा पाया गया तत्व संग्रहीत किया गया। उससे किसी ने छेडछाड नहीं की और वह निरंतर चलता रहा, ज्योतिष के रूप में निरंतर परीक्षा की कसौटी पर कसा जाता रहा। यह सारा गणित शुद्ध रूप से वैज्ञानिक अनुसंधान की वह विधा है जो निरंतर नई खोजों में व्याप्त है। समय के लघु, मध्यम, वृहद और वृहदेत्तर स्थितियों को लेकर सनातन अनुसंधानों में कई इकाईयों और सिंद्धातों को स्थापित किया। लघु क्षैत्र में एक दिन और रात्री का संयुक्त समय 60 घटी अथवा 24 होरा में विभाजित हुआ, उसमें पल, विपल,  वलिप्त, पर और तत्पर का भी अन्तर विभाजन हुआ।

भास्कराचार्य ने जिस त्रुटि को समय की इकाई का अंश माना वह सेकेंड का 33750वां हिस्सा है। वहीं काल की महानतम इकाई महाकल्प घोषित की जो कि वर्तमान ब्रह्माण्ड की सम्पूर्ण आयु अर्थात 31,10,40,00,00,00,000 वर्ष है।
समय की छोटी इकाईयों में -
1 पूर्ण दिन (दिन व रात्री) = 60 घटी = 24 होरा
1 घटी = 60 पल = 24 मिनिट
1 पल = 60 विपल = 24 सेकेंड
1 विपल = 60 वलिप्त
1 वलिप्त = 60 पर
1 पर    = 60 तत्पर
समय की दैनिक इकाईयां-
7 दिन = 1 सप्ताह
15 दिन = 1 पक्ष /कृष्णपक्ष /शुक्लपक्ष
2 पक्ष = 1 माह
2 माह = 1 ऋतु
6 ऋतु = 1 वर्ष
2 आयन = 1 वर्ष /
100 वर्ष = 1 शताब्दी
समय की बडी इकाईयों में -
सतयुग  = 17,28,000 वर्ष , त्रेतायुग= 12,96,000 वर्ष
द्वापरयुग= 8,64,000 वर्ष,   कलयुग= 4,32,000 वर्ष
इन चारों युगों के जोड को महायुग कहा जाता है।
महायुग =43,20,000वर्ष, 71 महायुग = 1 मनवंतर
14 मनवंतर व संधिकाल = 1000
1000महायुग = 1 कल्प
1000 महायुग  = 1 कल्प = 432 करोड वर्ष
1 ब्रह्मदिवस  = 2 कल्प (1 कल्पदिन व 1 कल्परात)
     = 864 करोड वर्ष
360 बह्म दिवसों (720 कल्प) का एक ब्रह्म वर्ष
1000 ब्रह्म वर्षों, ब्रम्हा की आयु मानी जाती है।

 कुल मिलाकर ब्रह्माण्ड और उसमें व्याप्त उर्जा अनंत है, न तो उसका प्रारम्भ ज्ञात हो सकता न अंत हो सकता। यह सतत व निरंतर है, मगर वर्तमान ब्रह्माण्ड संदर्भ में जो पूर्वजों द्वारा खोजी गई आयु और अंत की वैज्ञानिक खोज है, उसी का नाम संवत्सर की कालगणना है। भारत में वर्ष गणना दो प्रकार की स्वीकारी गई है। चन्द्रमा के पृथ्वी परिभ्रमण काल को आधार मानकर जो गणना की जाती है, उसे चन्द्र वर्ष का निर्धारण होता है एवं पृथ्वी के सूर्य परिभ्रमण को आधार मान कर जो गणना की जाती है उसे सौर वर्ष का निर्धारण होता है।

 चन्द्रमा पृथ्वी का परिभ्रमण जितने समय में पूरा कर लेता है, सामान्यतः वह समय एक चान्द्रमास कहलाता है। मास के जिस पक्ष में चन्द्रमा घटता है, उसे कृष्ण पक्ष एवं जिस पक्ष में बढ़ता है, उसे शुक्ल पक्ष कहते है। सम्पूर्ण गोल 360 अंशो में समाहित है। इन 360 अंशो में व्याप्त गोल 30-30 अंश के 12 भाग है। 12 राशियॉ एक-एक राशि में  2 नक्षत्र आते है, (एक नक्षत्र 13 अंश 20 कला का होता है।)

 पृथ्वी, चंद्र, सूर्य, ग्रह, धूमकेतु, आकाशगंगायें, निहारिकायें सबके सब घूम रहे है, घूमते हुए परिक्रमा कर रहे है, ऐसी स्थिति में स्थिर चिन्हों की खोज हुई, ताकि दिशाओं का निश्चित निर्धारण हो सके, परिणाम स्वरूप ब्राह्मण के 27 स्थिर तारा समूह नक्षत्र के रूप पाये गये जिनका नाम अश्रिवनी, भरणी, कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा, आद्वा, पुर्नवसु, पुष्य, आश्लेषा, माघ, पू.फाल्गुनी, उ.फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाती, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठ, मूल, पूर्वाषाढा, उत्तरा आषाढा़, श्रवण, श्रविष्ठा, शतभिषक, पूर्व भाद्रपद, उत्तर भाद्रपद, रेवती ।

 इसी प्रकार सम्पूण ब्रह्माण्ड को निश्चित 12 भागों में बांटा गया ये भाग राशी कहलाते हैं, मेष,  वृष,  मिथुन, कर्क,  सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ, मीन आदी 12 राशियां हैं। नक्षत्रों एवं राशियों से ही ग्रहों की गत्यात्मक स्थिति की जानकारी प्राप्त होती है। ग्रह गतिशील ज्योतिर्पिण्ड है, जो निरन्तर सूर्य की परिक्रमा करते रहते है। पृथ्वी अन्य ग्रहों की भांति सूर्य की परिक्रमा करती है एवं चन्द्रमा पृथ्वी की परिक्रमा करता है ।

 एक चन्द्र मास लगभग 29 दिन का होता है। सूक्ष्म गणनानुसार चन्द्रमा के बारह महीनों को वर्ष सौर वर्ष से 11 दिन 3 घटि 48 पल छोटा है। इस प्रकार 32 माह (तीन वर्षो) में चन्द्र वर्ष; सौर वर्ष से लगभग एक माह पिछड जाता है, चन्द्र वर्ष एवं सौर वर्ष में गणना में संगति अथवा सामंजस्य बनाये रखने के लिए हर 32 माह के बाद एक अधिमास आता है जिसे मल मास भी कहा जाता है।

 शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा बढ़ते बढ़ते जिस नक्षत्र में जाकर पूर्ण होता है उसी नक्षत्र के नाम के आधार पर मास का नाम होता है, इसे यो समझें के किसी मास में पूर्णिमा के दिन यदि चन्द्रमा चित्रा नक्षत्र में है तो वह माह चैत्र होगा। यदि विशाखा में है तो वह माह वैशाख होगा। पूर्णिमा की इन नाक्षत्रिक स्थितियों के आधार पर बारह माहों का नाम निर्धारण किया गया है। चैत्र, वैशाख, जेष्ठ, आषाढ, साबन, भादों, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीष, पौष, माघ, फाल्गुन आदी बारह माह हैं।भारतीय मासों के नाम किसी हीरों अथवा देवता के नाम पर न होकर शुद्व खगोलीय स्थिति पर आधारित है, प्रत्येक पूर्णिमा की संन्ध्या को पूर्व क्षितिज में विद्यमान नक्षत्र को पहचान कर चन्द्र स्थिति से इस सत्य की पुष्टि की जा सकती है।नक्षत्रों के सापेक्ष सूर्य एक दिन में एक अंश चलता है एवं चन्द्रमा लगभग 13 अंश। अमावस्या को सूर्य एवं चन्द्र साथ होने से उनके बीच अन्तर शून्य अंश हो जाता है। आगामी 24 घण्टें में सूर्य एक अंश चलता है एवं चन्द्र 13 अंश। परिणामतः इन दोनों के बीच (13-1) याने 12 अंश का अन्तर हो जाता है। चन्द्रमा एवं सूर्य के बीच 12 अंश को अन्तर होने की जो समयाविधि होती है उसे ही तिथि कहतें है। जब कोई तिथि दो क्रमागत सूर्योदयों तक रहती है तो तिथि की वृद्वि कहलाती है अर्थात दोनों दिन एक ही तिथि मानी जाती है क्योंकि सूर्योदय के दिन जो तिथि होती है वही तिथि सारे दिन मानी  जाती है। दो क्रमागत सूर्योदयों के बीच जब कोई तिथि पड़ती है तब उस तिथि का क्षय माना जाता है ऐसी तिथि की अवधि प्रायः 60 घडी से भी कम होती है। प्रत्येक तिथि क्रम से प्रतितिथि सूर्य एवं चन्द्रमा का अन्तर 12-12  अंश करके बढ़ता जाता है। पूर्णिमा को यह अन्तर 15 गुणा 12=180 अंश हो जाता है। पूर्णिमा को सूर्य एवं चन्द्र पृथ्वी से आमने सामने दिखाई देते है। पूर्णिमा की आगामी तिथि (कृष्ण पक्ष प्रतिपदा) से सूर्य एवं चन्द्रमा का अन्तर 12 अंश घटते घटते लगभग 15 दिन में यह शून्य हो जाता है तब अमावस्या की स्थिति आ जाती है । अर्थात चन्द्रमास में तिथियों को क्रम मनमाने आधार पर नही है यह क्रम चन्द्रमा एवं सूर्य की गति एवं उनकी दूरी पर निर्भर करता है । जो लोग भारतीय तिथियों में मनमानापन बताते है उन्हे भारतीय कालगणना का ज्ञान नही है। तिथि गणना साधार एवं वैज्ञानिक है

 पृथ्वी से सबसे निकट ग्रह चन्द्र है उसके पश्चात बुध,  शुक्र,  सूर्य, मंगल, बृहस्पति एवं शनि है। यदि निकटता एवं दूरी को ध्यान में रखकर इनकी गणना सूर्य से आरंभ करे तो एक वृत्ताकार क्रम बनता है सूर्य, शुक्र, बुध, चन्द्र, शनि, गुरू एवं मंगल। प्रत्येक अहोरात्र (रात दिन) में 24 होरा (घण्टे ) होते है एवं प्रत्येक होरा एवं प्रत्येक होरा पर किसी ग्रह का अधिपत्य होता है। सूर्योदय के समय पर प्रथम होरा पर जिस ग्रह का अधिकार होता है वह दिन उसी ग्रह के नाम से माना जाता है। सृष्टि के आरंभ के दिन चैत्र, शुक्ला प्रतिपदा थी एवं रविवार था, अतः दिन की गणना रविवार से एवं होरा गणना रवि (सूर्य) से की जाती है। पूर्वाेक्त क्रम से 24 होरा के मध्य सातों ग्रहों का प्रभाव क्रमशः होता है एवं 25वां होरा आगामी दिन का प्रथम होरा होता है। रविवार के प्रथम होरा से गणना करे तो सूर्य, शुक्र, बुध, चन्द्र, शनि, गुरू, मंगल इस क्रम से गणना करने पर 25वां होरा चन्द्र का होता है। अतः रविवार से आगामी वार चन्द्रवार है, चन्द्रवार से गणना, प्रथम होरा से चन्द्रमा से आरंभ करेगें तो 25 वॉ होरा अर्थात आगामी दिन का प्रथम होरा मंगल को आयेगा अतः सोमवार से आगामी वार मंगल हुआ। स्पष्ट है कि वारों के क्रम निर्धारण में एक व्यवस्थित आधार को लेकर चला गया है और आज विश्व के लगभग सभी पंचाग भारत के इसी वार क्रम को अपना रहे है । यह वार क्रम भी वैज्ञानिक है, साधार है ।
 सूर्य सिद्धान्त के अनुसार पृथ्वी सूर्य का परिभ्रमण करने में 365 दिन 15 घडी 31 पल 31 विपल एवं 24 प्रतिविपल का समय लेती है । वस्तुतः यही एक वर्ष का मान है । ईस्वी सन का दिनांक मध्य रात्री 12 से आरंभ होता है अर्थात रात्री के 12 बजे के पश्चात् अगला दिन वहां आरंभ हो जाता है, इसका सीधा सा अर्थ है कि उस समय भारत में सूर्योदय हो रहा होता है, इस तरह से इतना तो स्पष्ट है कि पाश्चात्य कालगणना भारतीय कालगणना से अत्याधिक प्रभावित है।

चक्रपाणि त्रिपाठी

Comments

Popular posts from this blog

नीरा आर्य की कहानी

संसार में सुखी कौन है